Sunday, December 9, 2012

जात-पात, उंच-नीच के भेद भाव को मिटाता ये पैसा।

मैं शुरू से ही बहुत ही खायू किस्म का व्यक्ति  हूँ। मुझे मॉस मछली बहुत पसंद है और मेरी बीवी लाजबाब व्यंजन बनाती है। आज एक मजेदार वाक्या मछली लेते वक़्त मेरे साथ हुआ। हुआ ये की जब मैं मछली के पैसे दे रहा था तो कसाई ने मछली के हाथ से ही खुले पैसे जो की 500 और कुछ 10-20 रूपये के नोट थे वो वापस कर दिए। कसाई तो कसाई है मछली जिस हाथ से कटेगा उसी हाथ से ही तो वापस करेगा भाई। तो उन नोटों पर खून लग गया। मैंने भी वो नोट अपने रुमाल से पोंछ कर अपनी जेब में रख लिए। मूर्ख तो हूँ नहीं जो की अपनी मेहनत की कमाई फेंक दूं।
 
अब मैं रास्ते भर येही सोचता रहा की पैसा भी कितना अजीब है। कैसा भी हो गन्दा मैला या सड़ा  हुआ सभी इसे हाथो हाथ लपक लेते हैं। कोई ये नहीं सोचता की ये पैसा कितने हाथो, कितने और कैसे लोगो से होता हुआ आपके बटुए में जाता है। यही पैसा दुल्हे का हार बन जाता है और इसी पैसे को मंदिर-मस्जिद में चढ़ावे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। पैसा जात-पात, उंच-नीच, के भेद भाव को मिटा देता है।

 आज भी हमारे भारतीय समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जो जात-पात, उंच-नीच में बहुत भेद भाव करते हैं। यकीन मानिये आज भी ऐसी खबरे न्यूज़ पेपर में पढने में आती है। मैं उन लोगो से ये प्रश्न करना चाहता हूँ की क्या आप पैसे को दांत से नहीं पकड़ते जो की आपका धर्म भ्रष्ट कर देगा?


पैसा इंसान से बड़कर नहीं है। छोटी जात वाले को इगनोर करो और उस से भी कही अधिक सड़े  हुए नोट को आप भगवान के चरणों में अर्पण करो। आखिर ये कैसी मानवता है भाई। भगवान को पैसे का लालच तो होगा नहीं, वो भी सोचता ज़रूर होगा की मानव इतनी सड़ी हुई वस्तु क्यों मुझे दे रहा है।

इन सभी बातो को सोचते हुए मैं घर आ गया मगर एक सवाल मेरे जेहन में अब भी घूम रहा है। जब इस सड़े हुए पैसे से किसी को गिला-शिकवा नहीं है तो फिर इंसान आपस में ही क्यों एक दुसरे से नफरत करते हैं?

किचिन में से बीवी आवाज़ दे रही है। खाना पक गया शायद। भाई मैं तो चला अपना भोजन करने। तब तक आप ये नीचे दिए गए न्यूज़ पेपर की कुछ न्यूज़ देखिये और सोचिये एक बार ज़रूर कही यही पैसा आपकी बर्बादी का कारण ना बन जाए।


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